Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद



सूरदास को सोफ़िया से सम्मान पाने के बाद ये अपमानपूर्ण शब्द बहुत बुरे मालूम हुए। अपना आदर करनेवाले के सामने अपना अपमान कई गुना असह्य हो जाता है। सिर उठाकर बोला-भगवान् ने जन्म दिया है, भगवान् की चाकरी करता हूँ। किसी दूसरे की ताबेदारी नहीं हो सकती।
मिसेज़ सेवक-तेरे भगवान् ने तुझे अंधा क्यों बना दिया? इसलिए कि तू भीख माँगता फिरे? तेरा भगवान् बड़ा अन्यायी है।
सोफ़िया-(अंगरेजी में) मामा, आप इसका अनादर क्यों कर रही हैं कि मुझे शर्म आती है।
सूरदास-भगवान् अन्यायी नहीं है, मेरे पूर्व-जन्म की कमाई ही ऐसी थी। जैसे कर्म किए हैं, वैसे फल भोग रहा हूँ। यह सब भगवान् की लीला है। वह बड़ा खिलाड़ी है। घरौंदे बनाता-बिगाड़ता रहता है। उसे किसी से बैर नहीं। वह क्यों किसी पर अन्याय करने लगा?
सोफ़िया-मैं अगर अंधी होती, तो खुदा को कभी माफ न करती।
सूरदास-मिस साहब, अपने पाप सबको आप भोगने पड़ते हैं, भगवान का इसमें कोई दोष नहीं।
सोफ़िया-मामा, यह रहस्य मेरी समझ में नहीं आता। अगर प्रभु ईसू ने अपने रुधिर से हमारे पापों का प्रायश्चित्त कर दिया, तो फिर ईसाई समान दशा में क्यों नहीं हैं? अन्य मतावलम्बियों की भाँति हमारी जाति में अमीर-गरीब, अच्छे-बुरे, लँगड़े-लूले, सभी तरह के लोग मौजूद हैं। इसका क्या कारण है?
मिसेज़ सेवक ने अभी कोई उत्तर न दिया था कि सूरदास बोल उठा-मिस साहब, अपने पापों का प्रायश्चित्त हमें आप करना पड़ता है। अगर आज मालूम हो जाए कि किसी ने हमारे पापों का भार अपने सिर ले लिया, तो संसार में अंधेर मच जाए।
मिसेज़ सेवक-सोफी, बड़े अफसोस की बात है कि इतनी मोटी-सी बात तेरी समझ में नहीं आती, हालाँकि रेवरेंड पिम ने स्वयं कई बार तेरी शंका का समाधान किया है।
प्रभु सेवक-(सूरदास से) तुम्हारे विचार में हम लोगों को वैरागी हो जाना चाहिए। क्यों?
सूरदास-हाँ जब तक हम वैरागी न होंगे, दु:ख से नहीं बच सकते।
जॉन सेवक-शरीर में भभूत मलकर भीख माँगना स्वयं सबसे बड़ा दु:ख है; यह हमें दु:खों से क्योंकर मुक्त कर सकता है?
सूरदास-साहब, वैरागी होने के लिए भभूत लगाने और भीख माँगने की जरूरत नहीं। हमारे महात्माओं ने तो भभूत लगाने ओर जटा बढ़ाने को पाखंड बताया है। वैराग तो मन से होता है। संसार में रहे, पर संसार का होकर न रहे। इसी को वैराग कहते हैं।
मिसेज़ सेवक-हिंदुओं ने ये बातें यूनान के ैजवपबे से सीखी हैं; किंतु यह नहीं समझते कि इनका व्यवहार में लाना कितना कठिन है। यह हो ही नहीं सकता कि आदमी पर दु:ख-सुख का असर न पड़े। इसी अंधे को अगर इस वक्त पैसे न मिलें, तो दिल में हजारों गालियाँ देगा।
जॉन सेवक-हाँ, इसे कुछ मत दो, देखो, क्या कहता है। अगर जरा भी भुन-भुनाया, तो हंटर से बातें करूँगा। सारा वैराग भूल जाएगा। माँगता है भीख धोले-धोले के लिए मीलों कुत्तों की तरह दौड़ता है, उस पर दावा यह है कि वैरागी हूँ। (कोचवान से) गाड़ी फेरो, क्लब होते हुए बँगले चलो।
सोफ़िया-मामा, कुछ तो जरूर दे दो, बेचारा आशा लगाकर इतनी दूर दौड़ा आया था।
प्रभु सेवक-ओहो, मुझे तो पैसे भुनाने की याद ही न रही।
जॉन सेवक-हरगिज नहीं, कुछ मत दो, मैं इसे वैराग का सबक देना चाहता हूँ।
गाड़ी चली। सूरदास निराशा की मूर्ति बना हुआ अंधी आँखों से गाड़ी की तरफ ताकता रहा, मानो उसे अब भी विश्वास न होता था कि कोई इतना निर्दयी हो सकता है। वह उपचेतना की दशा में कई कदम गाड़ी के पीछे-पीछे चला। सहसा सोफ़िया ने कहा-सूरदास, खेद है, मेरे पास इस समय पैसे नहीं हैं। फिर कभी आऊँगी, तो तुम्हें इतना निराश न होना पड़ेगा।
अंधे सूक्ष्मदर्शी होते हैं। सूरदास स्थिति को भलीभाँति समझ गया। हृदय को क्लेश तो हुआ, पर बेपरवाही से बोला-मिस साहब, इसकी क्या चिंता? भगवान् तुम्हारा कल्याण करें। तुम्हारी दया चाहिए, मेरे लिए यही बहुत है।
सोफ़िया ने माँ से कहा-मामा, देखा आपने, इसका मन जरा भी मैला नहीं हुआ।
प्रभु सेवक-हाँ, दु:खी तो नहीं मालूम होता।
जॉन सेवक-उसके दिल से पूछो।
मिसेज़ सेवक-गालियाँ दे रहा होगा।
गाड़ी अभी धीरे-धीरे चल रही थी। इतने में ताहिर अली ने पुकारा-हुजूर, यह जमीन पंडा की नहीं, सूरदास की है। यह कह रहे हैं।
साहब ने गाड़ी रुकवा दी, लज्जित नेत्रों से मिसेज सेवक को देखा, गाड़ी से उतरकर सूरदास के पास आए, और नम्र भाव से बोले-क्यों सूरदास, यह जमीन तुम्हारी है?
सूरदास-हाँ हुजूर, मेरी ही है। बाप-दादों की इतनी ही तो निशानी बच रही है।
जॉन सेवक-तब तो मेरा काम बन गया। मैं चिंता में था कि न-जाने कौन इसका मालिक है। उससे सौदा पटेगा भी या नहीं। जब तुम्हारी है, तो फिर कोई चिंता नहीं। तुम-जैसे त्यागी और सज्जन आदमी से ज्यादा झंझट न करना पड़ेगा। जब तुम्हारे पास इतनी जमीन है, तो तुमने यह भेष क्यों बना रखा है?
सूरदास-क्या करूँ हुजूर, भगवान् की जो इच्छा है, वह कर रहा हूँ।
जॉन सेवक-तो अब तुम्हारी विपत्ति कट जाएगी। बस, यह जमीन मुझे दे दो। उपकार का उपकार, और लाभ का लाभ। मैं तुम्हें मुँह-माँगा दाम दूँगा।
सूरदास-सरकार, पुरुखों की यही निशानी है, बेचकर उन्हें कौन मुँह दिखाऊँगा?
जॉन सेवक-यहीं सड़क पर एक कुआँ बनवा दूँगा। तुम्हारे पुरुखों का नाम चलता रहेगा।
सूरदास-साहब, इस जमीन से मुहल्लेवालों का बड़ा उपकार होता है। कहीं एक अंगुल-भर चरी नहीं है। आस-पास के सब ढोर यहीं चरने आते हैं। बेच दूँगा, तो ढोरों के लिए कोई ठिकाना न रह जाएगा।
जॉन सेवक-कितने रुपये साल चराई के पाते हो?
सूरदास-कुछ नहीं, मुझे भगवान् खाने-भर को यों ही दे देते हैं, तो किसी से चराई क्यों लूँ? किसी का और कुछ उपकार नहीं कर सकता, तो इतना ही सही।
जॉन सेवक-(आश्चर्य से) तुमने इतनी जमीन यों ही चराई के लिए छोड़ रखी है? सोफ़िया सत्य कहती थी कि तुम त्याग की मूर्ति हो। मैंने बड़ों-बड़ों में इतना त्याग नहीं देखा। तुम धन्य हो! लेकिन जब पशुओं पर इतनी दया करते हो, तो मनुष्यों को कैसे निराश करोगे? मैं यह जमीन लिए बिना तुम्हारा गला न छोडूगा
सूरदास-सरकार, यह जमीन मेरी है जरूर, लेकिन जब तक मुहल्लेवालों से पूछ न लूँ, कुछ कह नहीं सकता। आप इसे लेकर क्या करेंगे?
जॉन सेवक-यहाँ एक कारखाना खोलूँगा, जिससे देश और जाति की उन्नति होगी, गरीबों का उपकार होगा, हजारों आदमियों की रोटियाँ चलेंगी। इसका यश भी तुम्हीं को होगा।
सूरदास-हुजूर, मुहल्लेवालों से पूछे बिना मैं कुछ नहीं कह सकता।
जॉन सेवक-अच्छी बात है, पूछ लो। मैं फिर तुमसे मिलूँगा। इतना समझ रखो कि मेरे साथ सौदा करने में तुम्हें घाटा न होगा। तुम जिस तरह खुश होगे, उसी तरह खुश करूँगा। यह लो (जेब से पाँच रुपये निकालकर), मैंने तुम्हें मामूली भिखारी समझ लिया था, उस अपमान को क्षमा करो।
सूरदास-हुजूर, मैं रुपये लेकर क्या करूँगा? धर्म के नाते दो-चार पैसे दे दीजिए, तो आपका कल्याण मनाऊँगा। और किसी नाते से मैं रुपये न लूँगा।
जॉन सेवक-तुम्हें दो-चार पैसे क्या दूँ? इसे ले लो, धर्मार्थ ही समझो।
सूरदास-नहीं साहब, धर्म में आपका स्वार्थ मिल गया है, अब यह धर्म नहीं रहा।
जॉन सेवक ने बहुत आग्रह किया, किंतु सूरदास ने रुपये नहीं लिए। तब वह हारकर गाड़ी पर जा बैठे।
मिसेज़ सेवक ने पूछा-क्या बातें हुईं?
जॉन सेवक-है तो भिखारी, पर बड़ा घमंडी है। पाँच रुपये देता था, न लिए।
मिसेज़ सेवक-है कुछ आशा?
जॉन सेवक-जितना आसान समझता था, उतना आसान नहीं है। गाड़ी तेज हो गई।

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